- Date : 27/07/2020
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- Read in English: Recession in India: How does it impact personal finance?
मंदी का दौर आर्थिक विकास के साथ-साथ व्यक्तिगत लक्ष्यों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। दुनिया ने पिछले कुछ दशकों में बहुत ज्यादा मंदी देखी है। शेयर बाजार, व्यापार, मुद्रास्फीति, ब्याज दरें, सभी आपस में -जुड़े हुए हैं और इसलिए वे सभी किसी न किसी तरह से व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं।

मंदी एक क्रूर चक्र है जिसमें आय, बिक्री, उत्पादन और रोजगार ,सबमे गिरावट होती हैं। मंदी के दौरान किसी देश की आर्थिक गतिविधि में भारी गिरावट होती है , और यह कुछ महीनों तक ऐसे ही चल सकता है। इसका असर वास्तविक जी.डी.पी., आय, बेरोजगारी, औद्योगिक उत्पादन और बिक्री में कमी में दिखाई देता है। जब मंदी शुरू होती है, तो कोई नहीं बता सकता कि यह कब समाप्त होगी ।
भारत ने अतीत में इस तरह के गिरावट को झेला है और लोगों ने इसके परिणाम का सामना भी किया है
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से देखी गई मंदी
2009 में, दुनिया को वित्तीय मंदी का सामना करना पड़ा, जिसे 'ग्रेट मंदी' कहा जाता था। अमेरिका में हाउसिंग बबल के गिरने के बाद विकसित राष्ट्रों को भी इसमें घसीटा गया और सबप्राइम और गिरवी के दरों को बढ़ाया गया। और इस वित्तीय संकट के झटके लंबे समय तक भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में महसूस किए गए।
भारत की जीडीपी और आर्थिक विकास घरेलू खपत द्वारा चालित है। भारत की GDP की वृद्धि दर 2007-2008 में 9% की तुलना में मई 2009 में 5.8% और अप्रैल-सितंबर 2008 में 7.8% दर्ज की गई है । भारतीय निर्यात और आयात में काफी गिरावट आई थी । निर्यात और आयात में औसत संकुचन अक्टूबर 2008 से सितंबर 2009 तक लगभग 20% और दिसंबर 2008 से सितंबर 2009 तक 28% था।
यह सितंबर 2003 से अगस्त 2008 की अवधि के लिए भारत के निर्यात और आयात से बिलकुल विपरीत था, जिसमें क्रमशः 28% और 35% की अच्छी वृद्धि देखी गई थी।
'तूफानी वर्ष'
1989 और 1990 में , फेडरल रिजर्व द्वारा अधिनियमित प्रतिबंधात्मक मौद्रिक नीति के कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था कमजोर हुई थी| 1986 के टैक्स रिफॉर्म एक्ट के परिणामस्वरूप संपत्ति के मूल्यों में कमी आई, निवेश प्रलोभन कम हुआ और कई लोगो की नौकरी छूट गई। 1990 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी आई, जो 8 महीने तक चली। इसने एक वैश्विक मंदी को जन्म दिया और अंततः भारत ने अपने घुटने टेक दिए क्योंकि आयात की तुलना में निर्यात काफी कम था।इस स्थिति को 'बैलेंस ऑफ पेमेंट क्राइसिस' कहा जाता था।
व्यक्तिगत वित्त पर प्रभाव
मंदी के आसपास भय की भावना मंडराती है। मंदी न केवल वित्तीय बाजारों, बल्कि अन्य उद्योगों, वैश्विक फण्ड की उपलब्धता, निर्यात आदि को प्रभावित करती है। वित्तीय दुनिया में बहुत सी चीजें आपस में जुड़ी हुई होती हैं। निर्यात और क्रय शक्ति, स्टॉक मार्केट में गिरावट और निवेश, तरलता और ऋण, आदि के बीच एक कड़ी जुडी होती है।
म्यूचुअल फंड में निवेश
2009 के संकट के दौरान, कुछ म्यूचुअल फंड निवेशक, विकास की ओर थे जबकि कुछ डूबत में थे। अगस्त और अक्टूबर 2008 के बीच सेंसेक्स में 30% की गिरावट आई और इसी अवधि में बी.एस.ई. मिड कैप इंडेक्स और बी.एस.ई. स्मॉल कैप इंडेक्स में 45% की गिरावट आई। मार्च 2009 के अंत तक, दो साल की अवधि के लिए किसी भी लार्ज-कैप विविध फंड में मासिक एसआईपी में लगभग 30% की गिरावट देखी जा रही थी ।
9 जनवरी 2008 को किए गए इंडेक्स फंड में निवेश ठीक 2 महीने में आधे से भी कम हो गए| निवेशकों को बिक्री करने में काफी घबराहट होती थी , क्योंकि वैश्विक वित्तीय संकट के संकेत के कारण शेयर बाजारों में तेजी देखी गई थी। लोग नकद बचाए रखना चाहते थे । प्रतिभूतियों को बेचकर , बैंकों से उधार लेकर ,और म्यूचुअल फंड के लिए आर.बी.आई. द्वारा खोली गई क्रेडिट की एक विशेष श्रृंखला द्वारा तरलता बनायीं गई थी।
हालांकि, जिन बहादुरों ने इस तूफ़ान में भी अपने निवेशों को बरक़रार रखा और लंबे समय तक अपने निवेश के प्रति निष्ठावान रहे, उससे उनको बड़ा झटका मिला । 4 नवंबर 2010 तक, सेंसेक्स 2008 तक के अपने उच्च अंक तक वापस पहुँच गया ,जिससे निवेशकों को अपने पैसे वापस मिल गए
ऋण
बैंक अर्थव्यवस्था को उत्तेजित करने के लिए, दरों को कम करने की कोशिश करते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब मंदी का दौर चल रहा होता है,तब लोग पैसे उधार लेने से घबरा जाते हैं और केवल बचत करने की तरफ ध्यान देते हैं। लोग मानते हैं कि उस वक़्त कोई भी संपत्ति की कीमत स्थिर हो जाएगी या ज्यादा से ज्यादा 4% -5% की दर से बढ़ेगी और उसके बदले में उन्हें ऋण पर 8% -9% ब्याज का भुगतान करना पड़ेगा ।
मुद्रास्फीति
मुद्रास्फीति वह दर है जिस पर किसी निश्चित समयावधि के लिए माल की कीमतें बढ़ जाती हैं। इसलिए मुद्रास्फीति उपभोक्ता की क्रय शक्ति के नुकसान का संकेत देती है। किसी मंदी के दौरान, जब लोग खर्च करने के प्रति सतर्क होते हैं, तो मुद्रास्फीति निवेशकों की जोखिम क्षमता को ढालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
ब्याज दर
जब भी भारत ने मंदी में प्रवेश किया है, तरलता की मांग बढ़ी है - लेकिन साथ ही, ऋण की आपूर्ति में कमी आई है। केंद्रीय बैंक अपनी मौद्रिक नीति का उपयोग ब्याज दरों को कम करने के लिए और आपूर्ति और मांग की गति पर प्रतिक्रिया देने के लिए करता है, और यही कारण है कि हम वास्तव में, मंदी के दौरान ब्याज दरों में गिरावट देखते हैं।
बेरोजगारी
भारत ने मंदी के दौरान असंख्य व्यापारिक विफलताओं को देखा है। इसके पीछे विभिन्न आर्थिक सिद्धांत हैं कि ऐसा क्यों होता है। दिए गए कुछ कारण- नकारात्मक आर्थिक झटके, संसाधन की कमी, ऋण संकट आदि हैं। कई व्यवसाय पूरी तरह से विफल हो जाते हैं और श्रम बल में छटनी का सहारा लेते हैं। नई नौकरियों की तलाश कर रहे बेरोजगार श्रमिकों की संख्या तेजी से बढ़ती है और व्यवसायों द्वारा नए श्रमिकों को नियुक्त करने की मांग कम हो जाती है।
खरीदने की क्षमता
नौकरियों का नुकसान, नौकरी से हटाने का डर, इक्विटी निवेश में अचानक से आयी कमी , ये सभी एक निराशाजनक मनोदशा का माहौल बनाते हैं। लोग अपने नकदी पैसे को जकड कर रखना चाहते हैं। वे कार नहीं खरीदना चाहते, घरों की मरम्मत नहीं करना चाहते , या फालतू के खर्च नहीं करना चाहते हैं। वे दृढ़ता से ये मानते हैं कि एक पैसा बचाया मतलब एक पैसा कमाए के बराबर होता है। मंदी में,आप अपने व्यय का वापस आंकलन करते हैं और आगामी वित्तीय लक्ष्यों की पुन: जांच करते है। बड़ी चीज़ों की खरीदारी स्थगित कर दी जाती है। यह या तो नियोजित खर्चों को कम करने से या उपयोग की गई संपत्ति लेकर किया जा सकता है।
आखरी शब्द
किसी मंदी की गंभीरता को 3 कारको से मापा जा सकता है - गहराई, अवधि और प्रसार । नौकरियों की हानि, शेयर बाजार में बदलाव , और बैंक घाटे के संदर्भ में गहराई को मापा जाता है। जितने वर्षो तक मंदी चलती है,उसे अवधि कहते है। प्रसार बताता है कि कितने क्षेत्रों में मंदी ने अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है।
शब्द 'मंदी' स्वाभाविक रूप से हमारे दिमाग में कुछ नकारात्मक भावनाओं को ट्रिगर करता है - जैसे कि बेरोजगारी, शेयर बाजार का अवमूल्यन, मुद्रास्फीति, दिवालियापन, हानि, भय आदि| लेकिन हम अंततः लचीले रहकर और विवेकपूर्ण वित्तीय निर्णय लेने से इन सभी स्थितियों से उबर सकते हैं।